इलाहबाद हाई कोर्ट ने लिव इन रिलेशन में रह रहे अंतर धार्मिक जोड़े को संरक्षण देने से किया इंकार
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- June 24, 2023
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इलाहाबाद हाई कोर्ट ने हाल ही में लिव इन रिलेशनशिप में रह रहे एक अंतर धार्मिक जोड़े को सुरक्षा देने से इंकार कर दिया।
जस्टिस संगीता चंद्रा और जस्टिस नरेंद्र कुमार जौहरी की पीठ ने कहा कि लिव इन रिलेशन से संबंधित मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणियों को ऐसे रिश्तों को बढ़ावा देने वाला नहीं समझा जा सकता।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा लता सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ यु पी व अन्य 2006 के मामले में दिए गए आदेश के संदर्भ में याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट से सुरक्षा की गुहार लगाई थी।
इस मामले में 29 साल की एक हिन्दू महिला और 30 साल के एक मुस्लिम पुरुष ने याचिका दायर कर कोर्ट से प्रतिवादियों को उनके शांतिपूर्ण जीवन में बाधा न डालने के लिए एक परमादेश रिट (Mandamus Writ) जारी किए जाने की मांग की थी।
याचिकाकर्ताओं का कहना था कि उन्होंने एक-दूसरे के प्रति अपने प्यार और स्नेह के कारण लिव-इन-रिलेशनशिप में रहने का फैसला किया है। लेकिन इस रिश्ते से नाखुश महिला की माँ पुलिस के पास चली गई जो लगातार याचिकाकर्ताओं के रिश्ते और उनके शांतिपूर्ण जीवन में बाधा डाल रही है और उन्हें परेशान कर रही है। याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि उनकी जानकारी के अनुसार उनके खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई है।
हालांकि याचिकाकर्ताओं ने निकट भविष्य में विवाह करने की योजना और लिव इन रिलेशन की समय सीमा या वर्तमान वैवाहिक स्थिति के विषय में कुछ नहीं बताया है और न ही पुलिस द्वारा परेशान किए जाने का कोई विशिष्ट उदहारण दिया है।
कोर्ट ने कहा कि एस खुशबू बनाम कन्नीअम्मल 2010, मदन मोहन सिंह बनाम रजनीकांत 2010, इंद्रा शर्मा बनाम के वी के शर्मा 2013, धानुलाल बनाम गनेश राम 2015, नंदकुमार व अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ केरला 2018 के मामलों में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को लिव इन रिलेशनशिप को बढ़ावा देने के रूप में नहीं लिया जा सकता।
कोर्ट ने कहा कि “कानून परंपरागत रूप से विवाह के पक्ष में रहा है। यह विवाह की संस्था को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से विवाहित व्यक्तियों के लिए कई अधिकार और विशेषाधिकार सुरक्षित रखता है। सुप्रीम कोर्ट केवल एक सामाजिक वास्तविकता को स्वीकार कर रहा है और उसका भारतीय पारिवारिक जीवन के ताने-बाने को खंडित करने का कोई इरादा नहीं है।”
कोर्ट ने कहा कई ऐसी याचिका दो निजी पक्षों के झगडे के समाधान के लिए नहीं है।
कोर्ट ने कहा कि ” हमारा मानना है कि यह एक सामाजिक समस्या है जिसे सामाजिक रूप से ही ख़त्म किया जाना चाहिए
न कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के उल्लंघन की आड़ में रिट कोर्ट के हस्तक्षेप से जब तक कि संदेह से परे उत्पीड़न स्थापित न हो जाए।”
कोर्ट ने लिव इन रिश्तों में परिवार के दूसरे सदस्यों द्वारा हस्तक्षेप किए जाने पर कोई दूसरा क़ानूनी रास्ता तलाशने को कहा।
कोर्ट ने कहा कि ” यदि किसी लिव-इन जोड़े की अपने माता-पिता या रिश्तेदारों के खिलाफ कोई वास्तविक शिकायत है जो कथित तौर पर उनके लिव-इन स्थिति में हस्तक्षेप कर रहे हैं जो इस हद तक बढ़ जाता है कि जान को खतरा है तो वे पुलिस के पास सीआरपीसी की धारा 154(1) या धारा 154(3) के तहत एफआईआर दर्ज करने, सक्षम न्यायालय के समक्ष धारा 156 (3) के तहत एक आवेदन दायर करने या सीआरपीसी की धारा 200 के तहत मामला दर्ज करने के लिए स्वतंत्र हैं।”
कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता अगर उचित न्यायालय या पुलिस के पास अपनी शिकायत दर्ज कराते हैं तो उस पर क़ानून के अनुसार विचार किया जा सकता है।
कोर्ट ने इन टिप्पणियों के साथ याचिका को ख़ारिज किए जाने का आदेश दिया।
केस टाइटल : किरन रावत व अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ यूपी (Criminal Misc. Writ Petition No. – 3310 of 2023)
आदेश यहाँ पढ़ें –